
हम आज कुछ ऐसे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति की जीवन की Real life Inspirational Stories in Hindi (इंस्पिरेशनल रियल लाइफ स्टोरी) के बारे में पढ़ेंगे जो हमें प्रोत्साहित करती है और हमें भी ज़िन्दगी में कुछ अच्छा करने की ऊर्जा प्रदान करती है। साथ ही साथ हमें हिम्मत भी देती है की हम अपने सपनों के रास्ते पर चलते रहे चाहे कितनी भी कठिनाई आये।
ये व्यक्ति साधारण व्यक्ति के रूप में होने के बावजूद असाधारण व्यक्ति रूप में निखर कर आये है, जिनसे हमें प्रेरणा मिलती है ताकि हम भी सफलता की बुलंदियों को छूने के लिए कड़ी मेहनत और लगन कर सके। इन व्यक्तियों के बारे में पढ़ कर आपके जीवन की दिशा, आपके सोचने का ढंग और साथ ही साथ जीने का अंदाज़ भी बदल जाएगा और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेगी।
आप इन सभी साधारण व्यक्ति के असाधारण व्यक्तित्व के बारे में पढ़ें और अपनी ज़िंदगीं की परिस्थिति से तुलना करें। तब आपको मालूम होगा की आपकी स्थिति इन व्यक्तियों की स्थिति से सफलता पाने के लिए अनुकूल है या नहीं।
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Abhinav Bindra (अभिनव बिंद्रा) : कड़ी मेहनत ने दिलाया गोल्ड (Real life Inspirational Stories of Abhinav Bindra in Hindi)
अभिनव बिंद्रा खेल शूटिंग से सम्बंधित इंसान है। अभिनव बिंद्रा का जन्म 28 सितम्बर 1982 में देहरादून, उत्तराखंड में हुआ। एथेंस ओलंपिक में पदक हासिल न करने पर बिन्द्रा काफी निराश हो गए थे। लेकिन उन्होंने यह ठान लिया कि अब मौका नहीं गवाएँगे और गोल्ड जीत के रहेंगे। और ठीक ऐसा ही हुआ। एथेंस ओलंपिक में पदक न पाने पर बिन्द्रा काफी सदमें में चले गए थे जिसकी वजह से उनके व्यवहार में काफी परिवर्तन देखने को मिलने लगा। उसके बाद बिन्द्रा अकेले रहने लगे, दोस्तों के साथ हँसी – मज़ाक सब छोड़ दिया। उनके दिमाग में बस गोल्ड का सपना बसा हुआ था। और इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने कड़ी प्रैक्टिस शुरू कर दी। वे विदेशों में जाकर प्रैक्टिस करते रहे।
ऐसा बताया जाता है कि बिंद्रा ने स्वयं ही अपने लिए प्राइवेट कोच और फिजियो नियुक्त किया था। इन सब के बावजूद वे कई प्रतियोगिताओ में मैडल न जीत पाए। इसलिए उनकी काफी आलोचनाएँ भी हुई। लेकिन सही वक़्त आने पर सभी के मुँह पर ताले पड़ गए जब 2008 बीजिंग ओलिंपिक में उन्होंने गोल्ड जीता। इसके अलावे भी इन्होने कई पदक हासिल किया। ये प्रथम भारतीय बने जिन्होंने व्यक्तिगत शूटिंग में गोल्ड जीता है।
Glenn Cunningham (ग्लेन कनिंघम) : संकल्पशक्ति से अपने पैरों पर खड़े हुए (Real life Inspirational Stories of Glenn Cunningham in Hindi)
यह कहानी डॉ. ग्लेन कनिंघम की है जो अमेरिका के तेज धावकों में से एक जाने जाते है। क्या आपको मालूम है एक वक़्त में वो अपने पैरो पर खड़े भी नहीं हो सकते थे। तो कैसे ये संभव हुआ आइये जानते है। बचपन में 8 वर्ष की छोटी उम्र में ग्लेन के स्कूल में आग से उनके पैर बुरी तरह से जल गए थे। पैर इतना जल चूका था कि डॉक्टरों ने बताया कि वो कभी चल भी नहीं पाएंगे। अस्पताल से घर वापस आने पर उनकी माँ उनका ख्याल रखती थी। उनके पैरो की मालिश करती और व्हील चेयर की मदद से मैदान और पार्क घुमाने ले जाती।
एक बार उसकी माँ ने उसे व्हील चेयर पर बैठाकर किसी काम से थोड़ी देर के लिए चली गयी थी तो उन्होंने खुद चेयर से उतर कर चलने की कोशिश में गिर गए। वो रोज ऐसा लगातार प्रयास करने लगे। उन्होंने अपने पैरों पर खड़ा होने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। उनकी इसी कोशिश से वो धीरे – धीरे खड़ा होना फिर चलना और फिर दौड़ने लगे। अब वो अमेरिका के मीलों दौड़ने वाला सबसे तेज धावक बन गए। उन्होंने 1500 मीटर की दौड़ में विश्व रिकॉर्ड भी बनाया।
Usain Bolt (उसैन बोल्ट) : जूते खरीदने के पैसे नहीं थे फिर भी विश्व चैंपियन बने (Real life Inspirational Stories of Usain Bolt in Hindi)
उसैन बोल्ट का नाम तो हम सभी ने सुना है। विश्व के सबसे तेज धावक के रूप में प्रसिद्ध उसैन बोल्ट ने यह ख़िताब कैसे जीता आइये जानते है।
बोल्ट गरीब परिवार से सम्बंधित थे। उसैन बोल्ट के पिता का नाम वेलेस्ली बोल्ट था उनके गाँव में छोटी सी दुकान थी। दुकान की कमाई से वो अपना सिर्फ गुजरा कर पाते थे। उनके पास जूते खरीदने के पैसे नहीं हुआ करते थे। बोल्ट के स्कूल प्रबंधक ने उन्हें जूते दिलाये थे। बोल्ट का जन्म जमैका के एक छोटे से गाँव शेरवुड कंटेंट, ट्रेलॉनी में 21 अगस्त 1986 में हुआ। जहाँ सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं था न स्ट्रीट लाइट, न ही पिने का पानी। उसैन बोल्ट की माँ का नाम जेनिफ़र बोल्ट था। उनकी माँ के अनुसार उनका जन्म निर्धारित तिथि के डेढ़ सप्ताह बाद हुआ था और यह कहना भी है की उसैन की गति सिर्फ उसी समय धीमी थी।
उसैन का एडमिशन विलियम निब (William Knibb) स्कूल में कराया गया जहाँ के प्रिंसिपल लोन थोप ने बताया की उसैन खेल कूद में बहुत अच्छे हैं। उनकी ट्रेनिंग का ध्यान भी स्कूल प्रबंधक ने रखा। 2008 में बीजिंग ओलिंपिक में चैंपियनशिप जीतने के बाद स्कूल और पूरा गांव बहुत खुश हुआ। उसैन बोल्ट ने अपने करियर में कई रिकॉर्ड बनाये। उसैन बोल्ट को लइटिनिंग बोल्ट का ख़िताब मिला है।
Dashrath Manjhi (दशरथ माँझी) : पहाड़ से भी मजबूत इरादे बनाये (Real life Inspirational Stories of Dashrath Manjhi in Hindi)
दशरथ मांझी जिन्हें हम माउंटेन मैन के नाम से भी जानते हैं। दोस्तों दशरथ मांझी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत कैसे है? और उन्हें माउंटेन मैन क्यों कहा जाता है? आइये जानते है।
दशरथ मांझी बिहार के गया (Gaya) जिले के गेहलौर गांव के निवासी थे। दशरथ मांझी का जन्म 14 जनवरी 1934 को हुआ था। उनके गांव में एक बड़ा सा पहाड़ था जिसे पार करने के बाद ही कोई एक कस्बे से दूसरे कस्बे जा सकता था। छोटी से छोटी जरूरतों के लिए भी पहाड़ पार करना पड़ता था। एक दिन की बात है जब दशरथ मांझी पहाड़ के पास काम कर रहे थे और हर दिन की तरह उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी उन्हें दोपहर का खाना देने जा रही थी तभी दुर्भाग्यवश अचानक पैर फ़िसलने के कारण वो एक पहाड़ी दर्रे में गिर गयी। आनन-फानन में सभी उन्हें अस्पताल ले जाने का प्रयास करने लगे। लेकिन समय पर अस्पताल तक नहीं पहुंचने के कारण उनकी पत्नी की मौत हो गयी। क्योंकि पहाड़ को पार कर अस्पताल पहुंचने में वक़्त लग गया था।
इस तरह दशरथ मांझी अपनी पत्नी की मौत का दोषी पहाड़ को मानने लगे। दशरथ मांझी अपनी पत्नी से बेहद प्यार करते थे। अपनी पत्नी को वो प्यार से फगुनिया कह कर बुलाते थे। पत्नी की मृत्यु ने उन्हें झकझोर दिया। तभी उन्होंने फैसला लिया कि वो पहाड़ को काटकर रास्ता बनाएंगे ताकि उनकी पत्नी की तरह किसी और को अस्पताल पहुंचने में देर न हो। उनके इसी फैसले के कारण दुनिया दशरथ मांझी को माउंटेन मैन ऑफ़ इंडिया कहने लगी। दशरथ मांझी ने अपनी बुलंद इरादे से छोटी सी छेनी-हथौड़ी उठाया और पहाड़ को काटने लगे। शुरुआत में लोग उनपर हँसते थे उन्हें पागल कहते थे और कहते थे अपनी पत्नी की मौत कारण मांझी सदमें में आ गया है इसलिए ऐसा काम कर रहा है। लेकिन दशरथ मांझी काम में जुटे रहे।
इस तरह दिन बीते और कई साल बीत गए लेकिन गर्मी हो या ठंड, बरसात हो या धूप दशरथ मांझी हारे नहीं अपने लक्ष्य को पाने के लिए लगातार परिश्रम करते रहे। और 22 साल के कठिन परिश्रम के बाद पहाड़ 360 फुट लंबा, 25 फीट गहरा, 30 फीट चौड़ा सड़क बना दिया। इस सड़क को हम अब दशरथ मांझी रोड के नाम से जानते है। इस तरह दशरथ मांझी का जीवन उन लाखों लोगों के लिए मिशाल है जो कई सालों से परिश्रम कर रहे है फिर भी सफलता प्राप्त नहीं हो रही है। दशरथ मांझी के जीवन से हमें यह सीखने को मिलता है कि लगातार परिश्रम करते रहने से एक न एक दिन हम अपने लक्ष्य को जरूर प्राप्त कर सकते है।
काम कितना भी कठिन हो अपने हौसले बुलंद होंगे तो हर काम सरल हो सकता है।
Dharampal Gulati (महाशय धर्म पाल) : न था घर न पैसे फिर भी बने मसलों के बादशाह (Real life Inspirational Stories of Dharampal Gulati in Hindi)
दोस्तों MDH के मसाले के बारे में आपने कहीं न कहीं सुना या टीवी पर विज्ञापन तो जरूर देखा होगा। आज हम MDH मसाले कंपनी के मालिक धर्मपाल गुलाटी के संघर्ष, सफ़लता और चुनौतियों के बारे में बात करेंगे।
धर्मपाल गुलाटी का जन्म 27 मार्च 1923 को पाकिस्तान के सियालकोट में हुआ। धर्मपाल गुलाटी के पिता का नाम महाशय चुन्नीलाल गुलाटी था। उनके पिता एक सामाजिक संगठन में काम करते थे और इसी संगठन में उनके पिता चुन्नीलाल ने अपने मसालों का छोटा सा कारोबार खोला था जिसका नाम Mahashian Dihahi Pvt. Ltd था।
धर्मपाल गुलाटी को पढ़ाई-लिखाई में बिल्कुल मन नहीं लगता था। वो बचपन से ही चंचल प्रवृत्ति के थे। सभी की तरह उनके पिता चुन्नीलाल भी चाहते थे कि उनका बेटा भी पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बने। लेकिन धर्मपाल गुलाटी का मन पढ़ाई में न लगने के कारण और पांचवी में फेल हो जाने के कारण उन्होंने सिर्फ चौथी तक पढ़ाई की। पढ़ाई छोड़ने के बाद धर्मपाल ने कई काम किये पर कोई काम में काफी दिन तक टिक नहीं पाए। अपने बेटे के इस चंचल मन को देखकर चुन्नीलाल ने उन्हें अपने मसाले की दुकान में काम करवाने लगे और मसलों की जानकारी देने लगे।
1947 में जब पाकिस्तान भारत से अलग हुआ तो उस समय सभी जगह सांप्रदायिक दंगो से सभी लोग डरे हुए थे। कईयों को अपना घर-द्वार छोड़ कर पलायन करना पड़ रहा था। इस दंगे से धर्मपाल और उनके परिवार को भी पलायन करना पड़ रहा था। धर्मपाल का परिवार सियालकोट छोड़ भारत के लिए निकल पड़े। कुछ दिन अमृतसर के रिफ्यूजी कैंप में बिताये फिर वहाँ से अपने किसी रिश्तेदार के घर दिल्ली आ गए। पलायन से उनका घर, दुकान सब पाकिस्तान के हिस्से में चला गया जिससे उनके पास कुछ नहीं रहा। धर्मपाल के पास थोड़े से पैसे थे जिससे उन्होंने तांगा ख़रीदा और तांगा चलाने लगे। लेकिन तांगा चलाने से उतने पैसे नहीं हो पा रहे थे कि वो गुज़र बसर कर सके इसलिए उन्होंने तांगा चलाना छोड़ दिया।
इसके बाद उन्होंने अपने पुराने व्यवसाय को फिर से चलाने का फैसला लिया। लेकिन सियालकोट के अच्छे खासे जमे हुए व्यवसाय को छोड़कर ऐसी जगह फिर से शुरू करना जहाँ उन्हें कोई नहीं जानता, इतना आसान नहीं था। फिर भी धर्मपाल ने हिम्मत से व्यवसाय को फिर से जीरो से शुरू किया। उन्होंने अपने पिता चुन्नीलाल से मिले अनुभवों का पूर्ण उपयोग किया और मसालों के बादशाह बन गए। आज उनकी कंपनी का मसाला हर घर के भोजन में देखने को मिलता है। उन्होंने अपने पिता के सिखाए मसालों का व्यापार न केवल बढ़ाया बल्कि उसे एक ब्रांड के रूप में देश भर में प्रचलित भी किया। धर्मपाल जी से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि पास में कुछ न होने के बावजूद अगर हम कुछ करना चाहे तो रास्ते बनते नज़र आने लगते है।